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सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को कानूनी तौर पर वैधता देने से किया इनकार।

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नई दिल्ली: पिछले कुछ समय में देशभर की कई अदालतों में याचिकाएं दायर करके समलैंगिक विवाह को वैधानिक मान्यता देने की मांग की जा रही है। इस पर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस पर कानून बनाने का अधिकार संसद के पास है।

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को समलैंगिक विवाह को कानूनी तौर पर वैधता देने से इनकार कर दिया है। संविधान पीठ ने 3-2 के बहुमत के फैसले से कहा कि इस तरह की अनुमति सिर्फ कानून के जरिए ही दी जा सकती है और कोर्ट विधायी मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
देश में समलैंगिक जोड़ों को आपस में शादी करने की कानूनी मान्यता मिलेगी या नहीं, इसका निर्णय अब संसद करेगी। सुप्रीम कोर्ट में प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने मंगलवार को समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता के सवाल पर फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि वह इस मामले में कानून नहीं बना सकता, बल्कि सिर्फ इसकी व्याख्या और इन्हें लागू कर सकता है।

इससे पहले समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग करने वाली याचिकाओं पर मई में 10 दिन की मैराथन सुनवाई हुई थी। 11 मई को सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने फैसला सुरक्षित रखा था। फैसले के पहले से ही समाज का एक बड़ा वर्ग समलैंगिक शादी के विरोध में खड़ा था। इसके साथ ही केंद्र ने भी इस तरह की शादी पर कड़ा विरोध जताया था।

पिछले कुछ समय में देशभर की कई अदालतों में याचिकाएं दायर करके समलैंगिक विवाह को वैधानिक मान्यता देने की मांग की जा रही है। 11 मई को सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने ऐसी 20 याचिकाओं की सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रख लिया था। पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ में भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति रवींद्र भट, न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा शामिल थे।

शीर्ष अदालत के समक्ष याचिकाओं में विशेष विवाह अधिनियम, विदेशी विवाह अधिनियम और हिंदू विवाह अधिनियम सहित विभिन्न अधिनियमों के तहत समान-लिंग विवाह को मान्यता देने की मांग की गई थी।

मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि यह कहना गलत है कि शादी एक अपरिवर्तनशील संस्थान है। अगर स्पेशल मैरिज एक्ट को खत्म कर दिया जाता है तो यह देश को आजादी से पहले वाले समय में ले जाएगा। हालांकि, स्पेशल मैरिज एक्ट को बदलना या न बदलना सरकार के हाथ में है। कोर्ट को विधायी मामलों में हस्तक्षेप से सावधान रहना चाहिए।

जस्टिस चंद्रचूड ने कहा कि जब मौलिक अधिकारों की रक्षा की बात आएगी तब शक्तियों या अधिकारों के विभाजन का सिद्धांत कोर्ट की ओर से निर्देश देने में आड़े नहीं आ सकता। कोर्ट इस मामले में कानून नहीं बना सकता, बल्कि सिर्फ इसकी व्याख्या और इन्हें लागू कर सकता है।

इसके साथ ही अदालत ने कहा कि जीवन साथी चुनने की क्षमता अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार से जुड़ी है। समलैंगिक लोगों सहित सभी को अपने जीवन की नैतिक गुणवत्ता का आकलन करने का अधिकार है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि बराबरी के अधिकार की सबसे बड़ी जरूरत यह है कि लोगों के साथ उनके लैंगिक रुझान के आधार पर भी भेदभाव न किया जाए।