(महिला दिवस विशेष)
आज महिला दिवस है। पहाड़ की महिलाओं/ बेटियों नें सदा से ही विश्व के पलक पर अपने कार्यों से अपनी चमक बिखेरी है। चिपको वूमेन गौरा देवी से लेकर मशरूम बिटिया दिव्या रावत, ऐपण गर्ल मीनाक्षी खाती, किसाण बिटिया रंजना रावत, पहाडी गर्ल सोनी बिष्ट सहित कई महिलाओं नें पहाड़ का माथा ऊंचा किया है। इसी कडी में इस बार आपको महिला दिवस पर रूबरू करवाते हैं प्रतिभा की धनी ढोल गर्ल वर्षा बंडवाल से। सीमांत जनपद चमोली के गडोरा (पीपलकोटी) की वर्षा बंडवाल ढोल वादन में पुरूषों के एकाधिकार को दरकिनार कर पारम्परिक वर्जनाओं को तोड़ कर ढोल वादन कर एक नयी लकीर खींची हैं। ढोल पर वर्षा की अंगुलियों के जादू से निकलने वाले ताल हर किसी को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। इतनी छोटी सी उम्र में पहाड की बेटी नें ढोल बजाकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया है। पिछले साल पीपलकोटी में आयोजित बंड मेले के उद्घाटन के दिन आदर्श राजकीय इंटर कॉलेज गडोरा की छात्रा वर्षा बण्डवाल की ढोल की थाप पर पौणा नृत्य आकर्षण का केंद्र रहा था। वर्षा बण्डवाल ने पिछले साल ढोल प्रतियोगिता में जनपद चमोली में प्रथम स्थान और राज्य स्तर पर द्वितीय स्थान प्राप्त किया था। वर्षा को बंड मेले और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दशोली खंड जिला चमोली द्वारा आयोजित मातृशक्ति सम्मेलन में सम्मानित भी किया जा चुका है।
बकौल वर्षा बंडवाल, ढोल हमारी ढोल दमाऊं हमारी सांस्कृतिक विरासत की पहचान है। इसके बिना हमारे लोकजीवन का कोई भी शुभ कार्य, उत्सव, त्यौहार पूर्ण नहीं हो सकता है। ढोल दमाऊं हर्ष, उल्लास और ख़ुशी का प्रतीक है। यह उत्तराखंडी संस्कृति का संवाहक व सामाजिक समरसता का अग्रदूत है। ढोल से 600 से 1000 तक ताल निकलते हैं। जबकि तबले पर 300 ही बजते हैं। मुझे ढोल से लगाव बचपन से ही था। बंड पट्टी में आयोजित होने वाले पांडव नृत्य, बगडवाल नृत्य, विभिन्न धार्मिक आयोजन, शादी ब्याह में बजने वाले ढोल की तालों को सुना और समझा। जब पहली बार मैंने ढोल को बजाया तो मेरी अंगुलियां स्वतः ही ढोल पर थिरकने लगी थी। मुझे खुशी है कि मैं अपनी पौराणिक ढोल वादन को पहचान देने की कोशिश कर रही हूँ। मैं चाहती हूं कि ढोल वादन में महिलायें भी आगे आयें और पूरे विश्व में पहाड के ढोल की गूंज सुनाई दे।
ढोल वादन से जुडी लोकसंस्कृति कर्मी माधुरी बर्त्वाल कहतीं हैं की ढोल हमारी लोकसंस्कृति का अहम् हिस्सा है। ढोल हमारे लोक जीवन में इस कदर रचा बसा है की इसके बिना शुभ कार्य की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। जहाँ लोग विदेशों से ढोल सागर सीखने उत्तराखंड आ रहें है वहीँ हम अपनी इस पौराणिक विरासत को खोते जा रहे हैं। ऐसे में हमें इसके संरक्षण और संवर्धन के लिए आगे आना होगा।
वास्तव मे ढोल दमाऊं बरसों से हमारी लोकसंस्कृति का द्योतक रहा है। लोकसंस्कृतिकर्मी डाॅक्टर दाताराम पुरोहित नें तो कई ढोल कलाकारों की कला को लिपिबद्ध और रिकार्डडिंग की है। उचित संरक्षण और संवर्धन के आभाव में धीरे धीरे हजारों सालों की हमारी ये पौराणिक विरासत आज उपेक्षा की वजह से गुम हो रही है। क्योंकि इसके जानकार और कलाकार बहुत ही कम रह गएँ हैं। इस विधा को बचाने के लिए युद्धस्तर पर काम करना होगा। ताकि आने वाली पीढ़ी इस विधा को आत्मसात कर सकें। यदि हमारे ढोल को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर नई पहचान दिलाई जानी हैं तो इस तरह के प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए।