रुद्रप्रयाग से करीब तीन किमी आगे अलकनंदा नदी के तट पर प्राचीन गुफा है। यह स्थल कोटेश्वर महादेव मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस आलौकिक प्रसिद्ध स्थल को लेकर दो कथाएं प्रचलित हैं। मंदिर के महंत शिवानंद गिरी बताते हैं कि श्रीकोटेश्वर महादेव का स्कंदपुराण में वर्णन है। भगवान कोटेश्वर जहां पर आज वर्तमान स्थित है उस आश्रम का नाम पूर्वकाल में ब्रह्माआश्रम था। यह ब्रह्माजी की तपस्थली थी। कालांतर में एक कोटी ब्रह्म राक्षस हुए। उन्होंने अपने आत्मोद्धार और राक्षसी योगी से मुक्ति पाने के लिए भगवान शंकर की उपासना इस क्षेत्र में की। भगवान शंकर ने उन्हें दर्शन दिए। भगवान शंकर से कोटी राक्षस ने दो वरदान मांगे। भगवान एक तो हमें इस राक्षस योनी से मुक्ति दिला दीजिए। कोटी ब्रह्म राक्षस ने दूसरा वर मांगते हुए कहा कि राक्षसों का संपूर्ण वंश समाप्त होने वाला है। ऐसे में हमारा नाम आने वाले काल में अमर रहे, संसार के लोग हमें याद रखें ऐसा वर दीजिए। भगवान महादेव ने उन्हें आशीर्वाद दिया और उन्हें दोनों वरदान दिए। पहले तो उन्हें राक्षस योनी से मुक्त किया और फिर इस गुफा में विराजमान हुए। भगवान शंकर ने कहा कि इस ब्रह्मआश्रम में वह कोटेश्वर महादेव के रूप में जाने जाएंगे। जो भी जिस कामना से मेरा पूजन करेगा मैं उसे तुरंत फल प्रदान करूंगा।
दूसरी पौराणिक मान्यता के अनुसार भस्मासुर नामक राक्षस ने तपस्या कर शिव से किसी भी व्यक्ति के सिर पर हाथ रखने पर भस्म करने का वरदान मांगा लिया था। वरदान पाने के बाद राक्षस ने भगवान शिव को भस्म करने की सोची। भस्मासुर से बचने के लिए भगवान शिव इसी गुफा में छिपे थे। इस दौरान शिव ने भगवान विष्णु का ध्यान किया और कुछ समय के लिए यहां रहे थे। आखिरकार भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार धरकर भस्मासुर को खुद के ही सिर पर हाथ रखने को मजबूर कर दिया। हाथों को ढंकना पड़ा और भस्मासुर राख बन गया। इस तरह विष्णु ने राक्षस को मार डाला।

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