देहरादून। उत्तराखंड में आग ने मचाई है तबाही हर साल न जाने कितने जंगल आग की भेट चढ़ जाते हैं और इस आग में न जानें कितनों क्या-क्या नुकसान होता है। लेकिन सरकार है कि इस तरफ ध्यान ही नहीं देती। जब जंगलों में आग लगती है तो जंगलों की आग से निबटने के लिए झांपा (हरी टहनियों को तोड़कर बनाया जाने वाला झाड़ू) आज भी कारगर हथियार है। हालांकि, मौसम का बिगड़ा मिजाज इसमें भी रोड़े अटका रहा है। इससे परेशान वन महकमे की निगाहें आसमान पर टिकी हैं कि कब इंद्रदेव मेहरबार हों और आग पर पूरी तरह काबू पाने में सफलता मिले। यह किसी से छिपा नहीं है कि प्रदेश में हर साल ही फायर सीजन, यानी 15 फरवरी से 15 जून तक जंगल खूब धधकते हैं। इस सबको देखते हुए आग पर काबू पाने के लिए आधुनिक संसाधनों की बात अक्सर होती रहती है, लेकिन इस दिशा में अभी तक कोई ठोस पहल नहीं हो पाई है। हालांकि, मैदानी क्षेत्रों के लिए तो कुछ उपकरण जरूर मंगाए गए हैं, मगर विषम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते पर्वतीय क्षेत्रों में यह कारगर साबित नहीं हो पा रहे। ऐसे में वहां आज भी परंपरागत तरीके से झांपे के जरिये ही जंगलों की आग बुझाई जा रही है।
वन विभाग के एक उच्चाधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि पहाड़ के जंगलों में फायर किट लेकर जाना बेहद कठिन कार्य है। वहां तो हलक तर करने को पानी की बोतलें ले जाना ही अपने आप में एक बड़ी चुनौती होता है। ऐसे में झांपा ही आज भी आग बुझाने का कारगर हथियार है। हालांकि, वह कहते हैं कि इसके लिए गहन अध्ययन कर पहाड़ की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर आग बुझाने के ऐसे औजार डिजाइन करने की दिशा में कदम बढ़ाए जाने चाहिए, जो हल्के हों। उधर, आग की बढ़ती घटनाओं से परेशान वन विभाग की पेशानी पर बल पड़े हैं। वजह है लगातार उछाल भरता पारा। सूरतेहाल, चिंता भी सालने लगी है कि यदि मौसम ने साथ नहीं दिया तो बड़े पैमाने पर वन संपदा तबाह हो सकती है। ऐसे में निगाहें इंद्रदेव पर टिकना स्वाभाविक है।