बदरीनाथ धाम की यात्रा से पूर्व जोशीमठ नृसिंह मंदिर में शनिवार को तिमुंडया कौथीग का आयोजन किया गया। इस दौरान देव पुजाई समिति द्वारा विशेष पूजाओं का आयोजन कर सुखद और सुचारु चारधाम यात्रा की कामना की। इस दौरान तिमुंडया वीर के पश्वा (अवतारी पुरुष) को भोग लगाया गया।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्रतिवर्ष देव पुजाई समिति की ओर से बदरीनाथ धाम की तीर्थयात्रा शुरु होने से एक सप्ताह पूर्व मंगलवार या शनिवार को तिमुंडया कौथीग का आयोजन किया जाता है। इसी परंपरा का निर्वहन करते हुए शनिवार को देव पुजाई समिति की ओर से कौथिग का आयोजन किया गया। इस दौरान देव पूजाई समिति के पदाधिकारी दोल-दमाऊ के साथ तिमुंडया के पश्वा को लेकर नृसिंह मंदिर चौक में पहुंचे। जिसके बाद मंदिर परिसर में स्थित माँ नवदुर्गा के मंदिर से माता का अवाम लाठ (निशान) मंदिर के चौक में पहुंचे। जहां नवदुर्गा, भुवनेश्वरी, चण्डिका, धाणी देवता और तिमुण्डया वीर ने पश्वाओं पर अवतरित होकर यहां नृत्य किया। इस दौरान भक्तों द्वारा तिमुंडया वीर को मांस, कई मण कच्चा चावल, गुड का भोग लगाया गया। धर्माधिकारी बदरीनाथ धाम और देव पूजाई समिति अध्यक्ष भुवन चन्द्र उनियाल का कहना है कि मान्यताओं के अनुसार तिमुण्डया तीन सिर वाला वीर है। माँ नवदुर्गा को दिये वचन को निभाने के लिये इस परम्परा का निर्वहन आदिकाल से किया जा रहा है।
इस मौके पर बद्रीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष मोहन प्रसाद थपलियाल, नगरपालिका अध्यक्ष शैलेन्द्र पंवार, उपजिलाधिकारी वैभव गुप्ता, ऋषि प्रसाद सती, भगवती प्रसाद कपरुवांण, कमल रतूड़ी समेत क्षेत्र के कई लोग सम्मिलित थे।
तिमुंडया वीर को लेकर यह है मान्यता—
स्थानीय मान्यताओं के अनुसार तिमुंडया (तीन सिर वाला) एक असुर जोशीमठ के हयूंणा गांव में रहता था। जहां वो मानव भक्षण कर अपनी उदर पूर्ति करता था। ऐसे में जब एक बार माँ नव दुर्गा भ्रमण पर हयूंण क्षेत्र में पहुंची तो उनके स्वागत को कोई ग्रामीण नहीं आया। जब माता ने इसका कारण पूछा तो उन्हें तिमुंडया दानव के बारे में पता चला। जिस पर माता ने ग्रामीणों को वहां तिमुंडया का आहार न बनने की बात कहते हुए रोक लिया। जिस पर तिमुंडया गांव में पहुंचा और इसके बाद माँ नवदुर्गा और तिमुंडया के बीच युद्ध हुआ। जिसमें माता ने तिमुंडया दावन के दो सिर काट कर उसे पराजित कर लिया। जिस पर व माता का शरणांगत हो गया और माता द्वारा उसे अपने वीर के रुप में शरण प्रदान की गई। साथ ही ग्रामीणों से वर्षभर में एक बार उसे भोग लगाने का वचन लिया। जिसके ग्रामीण तिमुंडया कौथीग के रुप आज भी निभा रहे हैं।
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